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नारी शक्ति

नारी शक्ति

नारी सर्वशक्तिमान की सबसे सुन्दर जीवित रचना है जिसे एक कोमल और मनोरम बाह्य रूप, रचनात्मक मस्तिष्क और स्नेह भरा दिल मिला है। सर्वशक्तिमान ने उसे जन्म देने और पालन-पोषण करने की विशेष प्राकृतिक शक्ति सौंपी है। सभी संस्कृतियाँ और समाज जीवन में नारी के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज के लोभ और अहंकार से उपजी जटिलताओं और कुटिलताओं ने नारी को अपनी प्राकृतिक 'संपत्ति' माना- इतनी कीमती संपत्ति कि उसे अपने नियंत्रण में करने के लिए एक जुनून होता है । इस कीमती संपत्ति पर नियंत्रण खोने के डर से पितृसत्तात्मक समाज नारी को कभी मुक्त नहीं होने देता। उसे हमेशा नियंत्रण में कस कर रखने के लिए और मनुष्य की स्वतंत्रता की धारणा को नीचा दिखाने के लिए नारी पर ‘मोरल पुलिसिंग’ या नैतिकता का खंजर का सख्ती से अभ्यास किया जाता है । जहाँ एक आदमी को खाने, पीने, कपड़े पहनने, घूमने, शादी करने और काम करने की पूरी आजादी है वहीं एक नारी को अक्सर समाज की नैतिक अनुमति लेने के लिए मजबूर किया जाता है कि कैसे कपड़े पहने, कहाँ और किसके साथ घूमे, किससे शादी करे, कहाँ और क्या काम करे | विवाह और प्रेम पर सामाजिक रूढ़ियाँ विभिन्न ग्रंथों को पढ़ने और स्नोव्हाइट और सिंड्रेला, लैला- मजनू, रोमियो-जूलियट, सोहनी-महिवाल जैसी कथाओं को पढ़ने के बाद, यह चौंकानेवाला तथ्य सामने आता है कि विवाह की धारणा प्रेम की धारणा से बहुत अलग है। प्रत्येक समाज विवाह को दो अजनबियों के बीच एक पारिवारिक, सामाजिक और पवित्र बंधन के रूप में परिभाषित करता है और पुजारियों की उपस्थिति में धार्मिक समारोहों के साथ विवाह किया जाता है । सामाजिक जीवन में विवाह की उपस्थिति इतनी प्रबल है कि सभी कानूनी दस्तावेजों में ‘वैवाहिक स्थिति’ नामक एक विशेष अनिवार्य कॉलम होता है । नौकरी के आवेदन, आयकर रिटर्न, पासपोर्ट, चुनावी नामांकन - हर जगह याद दिलाया जाता है—- शादी । कोई भी महान व्यक्ति हो, उसकी जीवनी वैवाहिक जानकारी के बिना पूरी नहीं होती । दुनिया में सबसे शक्तिशाली भावना, जिसे 'प्रेम' (प्रणय) कहा जाता है, को भी शादी (परिणय) के बिना कोई सामाजिक या धार्मिक मान्यता नहीं मिलती है। कितना भी पवित्र प्रेम हो, उसे तभी सफल माना जाता है जब वह विवाह में परिणत हो । लेकिन बिना प्रेम के शादी होने और पूरे विवाहित जीवन में प्रेम न होने पर भी शादी को सामाजिक और धार्मिक– दोनों तरह की मान्यता प्राप्त है। कुछ समाजों में विवाह मनुष्य के सात जीवन के लिए एक बंधन के रूप में माना जाता है । जिस विवाह में प्रेम न हो, उसके प्रति सम्मान विकसित करना नारी के लिए मुश्किल होता है और वह सिर्फ सामाजिक अपराधियों से बचने के लिए एक अनिवार्य बंधन के रूप में सहन किया जाता है। फिर भी, सामाजिक और धार्मिक स्वीकृति मिलने के कारण विवाह एक मजबूत संस्था के रूप में जाना जाता है और प्रेम से अधिक पवित्र माना जाता है। हालांकि शादी में 'जीवन साथी' की धारणा को उदारतापूर्वक दुहराया जाता है, लेकिन इसकी असली तस्वीर बहुत अलग है। हर समुदाय में विवाह पत्नी को पति के कब्जे की 'संपत्ति' और उसके अधीनस्थ के रूप में परिभाषित करता है, न कि जीवन साथी की तरह। शादी के दौरान और बाद के रीति-रिवाज प्रेम के सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत हैं। प्यार में आपसी प्यार और सम्मान के आधार पर साथी बनते हैं । प्रेम कथाओं के नायक का यह विशिष्ट दृश्य है कि वह नायिका को लुभाने के लिए और उसे पाने से पहले जीवन भर उसके पीछे भागता है, यहाँ तक कि उसके बिना मरने की कसम भी खा लेता है। लेकिन उसे पाने और शादी के बाद तस्वीर अचानक पूरी तरह से और भयानक रूप से बदल जाती है जहाँ नायक उस नायिका के जीवन का कमांडर-इन-चीफ बन जाता है। पति बनते ही नायक का सम्मान नायिका के सम्मान से बहुत ऊपर हो जाता है। अब नायिका को कसम दिलाई जाती है कि वह नायक की आज्ञाकारी सेवक बनकर जीवन भर उसके पीछे दौड़े। भारत में बहुत सारे रीति-रिवाज हैं जिसने पत्नी पर अधीनस्थ बनने का सामाजिक दबाव डाला है। यह स्पष्ट नहीं है कि पत्नी उसके अधीनस्थ के रूप में कैसा महसूस करती है- दिल की रानी की तरह या दासी की तरह । लेकिन यह एक स्पष्ट है कि इस तरह के रीति-रिवाज न केवल पति के सामने बल्कि अपने बच्चों के सामने भी पत्नी का सम्मान कम कर देते हैं, जो अपनी माँ को अपने पिता के बराबर नहीं बल्कि अपने जैसे अधीनस्थ के रूप में पाते हैं। इस कारण ये बच्चे अपने जीवन में नारी के प्रति सम्मान विकसित नहीं कर पाते हैं । कुछ सामाजिक व्यवस्थाएँ स्त्री को देवी कहती हैं मगर उसे कभी भी स्वतंत्र नहीं होने देती और सदा पुरुष संरक्षण की चेतावनी देती हैं। ऐसे ही समाज सामाजिक अपराध को उचित ठहराते हैं और इसका दोष नारी पर मढ़ देते हैं। कुछ सामाजिक व्यवस्थाओं में पत्नी को 'शरीक- (जीवन-साथी) कहा जाता है, लेकिन वह पुरुष के अधीन होती है। साथ ही, चार पत्नियों और तत्काल तलाक का तरीका विवाह जैसी संस्था को कमजोर और तुरत टूटनेवाला बना देता है। एक अन्य सामाजिक व्यवस्था में पत्नी और पति की वास्तविकता को बयान करती है एक प्रसिद्ध पंक्ति: “वह (पुरुष) स्वयं ईश्वर के लिए, वह (पत्नी) उसमें स्थित ईश्वर के लिए।” यानी सर्वशक्तिमान की उपासना करने में भी नारी को सक्षम नहीं माना जा रहा बल्कि उसे पुरुष की उपासना करने को कहा गया। आपने POTUS (संयुक्त राज्य-ए-हयात')